नेपाल के अंतिम गांव में एक दिन

22 सितंबर, 2024 को सुबह पिथौरागढ़ से चले, इसलिए गर्ब्यांग में भारत-नेपाल को जोड़ने वाले सीतापुल तक पहुंचने में शाम के साढ़े पांच बज गए। रात का ठिकाना नेपाल के छांगरू गांव के गागा में जीत सिंह का होमस्टे था। बूंदी के पर्यटन कारोबारी हरीश रायपा ने जीत सिंह को फोन करके यह होमस्टे बुक करा दिया था। अंधेरा होने से पहले गागा पहुंचने की जल्दी थी, ताकि आसपास घूमा जा सके। लेकिन सीतापुल पर भारत की तरफ तैनात एसएसबी वालों के चौकन्नेपन को यह मंजूर नहीं था। ट्रेकरों जैसी वेशभूषा और हमारे भारी-भरकम कैमरों को देखकर एसएसबी के जवानों का माथा ठनका। उन्होंने हमें सम्मान से बिठाया और पूछताछ शुरू कर दी। हमने अपना पता बताया और एड्रेस प्रूफ भी दिया। लेकिन कैमरों को देखकर उन्हें इत्मीनान नहीं हो रहा था। बातचीत के दौरान जैसे ही हमने खुद को पत्रकार बताया, वे ज्यादा चौकन्ने हो गए। एक महिला जवान ने चेकपोस्ट के पास ही स्थित बैरेक से अपने इंस्पेक्टर को मौके पर बुला लिया। यह सज्जन चंपावत के रहने वाले थे। उनके आने के बाद एक बार फिर पूछताछ का दौर शुरू हुआ। हमने उन्हें भी बताया कि, हम आदि कैलास जा रहे हैं और आज की रात नेपाल के गागा स्थित होमस्टे में रुकने वाले हैं। कल सुबह छांगरू गांव में घूमकर वापस लौट आएंगे। इंस्पेक्टर ने दो बार अपने उच्च अधिकारियों से बात भी की। अंततः अनमने मन से हमें सीमा पार जाने देने के लिए राजी हुए। संभवतः कालापानी सीमा विवाद को लेकर कुछ वर्षों से दोनों देशों के बीच जो विवाद की स्थिति है, उसे लेकर यह सतर्कता बरती जाती है।

नेपाल पुलिस का दोस्ताना व्यवहार

भारत में सीमा पर सख्ती के उलट नेपाल में अलग ही माहौल था। नेपाल की ओर से सीमा पर स्थित चेकपोस्ट सीतापुल से करीब सौ मीटर ऊपर छांगरू के रास्ते पर है। नेपाल आर्म्ड पुलिस के जवानों ने हमें लेकर बड़ा उत्साह दिखाया। अंधेरा पसरने लगा था और सीतापुल पर आवाजाही बंद होने वाली थी। इसलिए चौकी पर तैनात नेपाल पुलिस के पांच-छह जवान हमारे साथ ही गागा के लिए रवाना हुए। नेपाल के चेकपोस्ट पर रात को रुकने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए जवान गागा में स्थित अपने बीओपी (बॉर्डर आउटपोस्ट) लौट रहे थे। लगभग एक किमी के इस रास्ते पर जवानों ने बातचीत होती रही। वे आसपास घूमने की जगहों के अलावा यह भी बता रहे थे कि, छांगरू में इन दिनों चायना से जूते, जैकेट आदि सामान आया है जो कि, अच्छा होने के साथ सस्ता भी है। वे हमें यहां से सामान खरीदकर ले जाने का सुझाव दे रहे थे।

सेब का अविस्मणीय सलाद

जीत सिंह का गागा होमस्टे नेपाल पुलिस की बीओपी (बॉर्डर आउटपोस्ट) से लगा हुआ है। यहां पहुंचने तक अंधेरा हो चुकी था। सेब के घने झुरमुट के बीच में स्थित होमस्टे में जीत सिंह से पहले उनके दो झब्बेदार कुत्तों ने बेहद गुस्साए अंदाज में हमारा स्वागत किया। हालांकि, जीत सिंह के आने के बाद दोनों मित्रवत हो गए। चाय पीने के दौरान जीत सिंह से इस इलाके और महाकाली नदी के पार भारत की ब्यास घाटी के बारे में बातचीत होती रही। जीत सिंह की पत्नी सुधा का मायका भारत में है। दोनों पति-पत्नी मिलकर कारोबार चलाते हैं। सुधा इन दिनों व्यापार करने के लिए तिब्बत के ताकलाकोट गई हुई हैं। जीत सिंह ने यहां से तकलाकोट सामान भेजने का काम संभाल रखा है।

गागा के होमस्टे में सेब से लदा पेड़

किचन में होमस्टे का सागिर्द भोजन की तैयारी में जुटा हुआ था। तभी जीत सिंह अपने बगीचे से दो परात भरकर सेब का सलाद लेकर आ गए। करीब दस हजार फीट की ऊंचाई पर उगाया गया यह सेब अब तक खाए सेब से काफी अलग था। दाने का आकार छोटा जरूर था, लेकिन ऐसा चटख रंग और इतना रसीला सेब पहली बार देखा। सितंबर अंत में यहां निचले इलाकों की जनवरी से ज्यादा सर्दी थी।

रात को गागा की छटा का दीदार नहीं कर पाए थे। सुबह होते ही उच्च हिमालय के इस सुंदरतम इलाके ने मन मोह लिया। होमस्टे के बगल से ही तिंकर नदी बहती है। नाम्फा हिमाल क्षेत्र से निकलने वाली तिंकर सीतापुल के पास भारत-नेपाल की सीमा विभाजक काली या महाकाली नदी से मिल जाती है। तिंकर की इस घाटी में घने उच्च हिमालयी प्रजातियों के जंगल हैं। नदी का पानी अत्यधिक ठंडा और नीलापन लिए हुए था। गागा के पास ही तिंकर नदी पर एक झूला पुल बना हुआ है। रात को गागा के पास घास के मैदान में डेरा डाले चरवाहे अल सुबह अपनी भेड़ों, मवेशियों और वन्यजीवों से इनकी सुरक्षा के लिए अपने विशालकाय और झब्बेदार कुत्तों के साथ जंगल को रवाना हो रहे थे। तिंकर नदी में यहां पर एक माइक्रोहाइडिल परियोजना है। जिससे गागा और छांगरू गांव को बिजली मिलती है।

होमस्टे के चारों ओर चार-पांच प्रजातियों के करीब पचास सेब के पेड़ थे। सबके सब फलों से लकदक। कुछ डालियां तो फलों के भार से जमीन छू रही थीं। सेब बेचने की यहां कोई सुविधा नहीं है। धारचूला ले जाकर बेचने पर इसका ठीक-ठाक दाम नहीं मिलता। इसलिए बाग से सेब तोड़ने पर कोई मनाही नहीं है। गागा के इस सेब में खास बात यह भी है कि, यदि आप सेब के जूस के शौकीन हैं तो आपको जूसर के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ेगी। मुट्ठी से सेब को निचोड़कर ही जूस बना सकते हैं। गागा से जब हम छांगरू के लिए रवाना हुए, होमस्टे के सागिर्द ने खूब सारे सेब हमें भेंट किए।

महिलाओं ने संभाला है तिब्बत के साथ व्यापार

सूरज सिर पर चढ़ आया था। लेकिन जीत सिंह का कहीं अता-पता नहीं था। हमें आज छांगरू की कंकालों से भरी गुफा और गांव में घूमने के बाद वापस भारत लौटकर कालापानी की ओर जाना था। कुछ देर बाद जीत सिंह के घोड़ों में सामान लादकर तिंकर पास तक जाने वाला उनका सागिर्द आया। उसने बताया कि, मालिक को रात को एसएसबी ने पकड़ लिया है। क्यों पकड़ा, उसने बताया कि, वह धारचूला से आया सामान काली नदी में रस्सी डालकर नेपाल लाने का प्रयास कर रहे थे। तभी एसएसबी की गश्ती टीम ने उनको पकड़ लिया और सारा माल भी जब्त कर दिया।

दरअसल, कोविड-19 के बाद चीन ने नेपाल के तिंकर और भारत के लिपूलेख दर्रे से होने वाला सीमा व्यापार बंद कर दिया था। जून, 2023 में चीन ने तिंकर दर्रे से नेपाल के साथ व्यापार की अनुमति दे दी है। इसके बाद से ही तिंकर और छांगरू के लोग व्यापार के लिए तिब्बत के ताकलाकोट जा रहे हैं। तिंकर और छांगरू के लिए नेपाल की ओर से कोई संपर्क मार्ग नहीं है। इसलिए यहां के निवासी आवाजाही और जरूरी सामग्री के लिए काली या महाकाली नदी पर बने सीतापुल पर निर्भर हैं। तिंकर और छांगरू के दर्जनों व्यापारी घोड़े, खच्चरों में गुड़, मिश्री आदि लेकर इन दिनों ताकलाकोट जा रहे हैं। गुड़, मिश्री के बदले वह चीन से जूते, जैकेट, चंवर गाय की पूछ आदि लेकर लौट रहे हैं।

तिब्बत के लिए गुड़ और मिश्री इन्हें भारत के धारचूला खरीदकर ले जाना होता है। गर्ब्यांग के पास भारत-नेपाल सीमा पर स्थित सीतापुल पर एसएसबी का कड़ा पहरा है। यहां से सिर्फ पारिवारिक जरूरत का सामान ले जाने की छूट है। लेकिन इस क्षेत्र में सीमा बनाने वाली काली नदी कई स्थानों पर इतनी संकरी है कि, नेपाल के व्यापारी नदी में तार के जरिए भारत से सामान नेपाल लेकर जाते हैं। सीतापुल पर तैनात एसएसबी के एक अधिकारी ने बताया कि, जब से नेपाल के तिंकर दर्रें से चीन के साथ व्यापार शुरू हुआ है, एसएसबी ने कांंबिग बढ़ा दी है। कई नेपालियों को गैर कानूनी तरीके माल ले जाने के आरोप में पकड़ा है। हमारे मेजबान जीत सिंह को भी एसएसबी ने काली नदी में रस्सी के जरिए गुड़-मिश्री नेपाल पहुंचाने का प्रयास करने हुए पकड़ा था।

गागा से छांगरू करीब एक किमी की दूरी पर है। हल्की सी चढ़ाई है पर रास्ता अच्छा है। छांगरू, पश्चिमी नेपाल के इस इलाके में भारत से लगा अंतिम गांव है। जबकि, इसी गांव का एक तोक तिंकर यहां से उत्तर में तिब्बत से लगा अंतिम गांव है। दोनों गांवों में रं जनजाति के बोहरा, ऐतवाल और लाला उपजातियों के लोग रहते हैं। इनकी नाते-रिश्तेदारियां नेपाल के बजाय भारत की ब्यास, चौदास और दारमा घाटियों के रं समुदाय के साथ हैं।

नेपाल का भारत से लगा अंतिम गांव छांगरू।

छांगरू गांव के प्रवेश द्वार पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। लकड़ी पर शानदार नक्काशी से बने घरों से लगीं संकरी गलियां पार कर गांव के बीचोंबीच पंचायती मैदाननुमा जगह पहुंचे। छोटे से मैदान के चारों ओर घर और एक दुकान है। सुबह सुबह गांव के कई लोग यहां गपिया रहे थे।

भेड़ मारने का अजब तरीका

हमने बातचीत शुरू ही थी कि, दुकान से सटे कमरे में कुछ हलचल होने लगी। अंदर देखा कि, एक भेड़ को मारने की तैयारी हो रही थी। भेड़ को मारने का तरीका यहां एकदम भिन्न था। न झटके से काटा गया न उसे हलाल किया गया। भेड़ को उल्टा लिटाकर एक व्यक्ति ने उसकी छाती पर चाकू से कट लगाया और दूसरे ने कट से अंदर हाथ डालकर उसका ह्रदय बाहर खींच लिया। यह सब कुछ सेकंड के भीतर निपट गया। इस दौरान न तो भेड़ चिल्लायी और न ही खून निकला।

छांगरू की कंकालों से भरी गुफा के बारे में पूछने पर गांव वाले खास उत्सुकता नहीं दिखाते। कुछ देर घुलने मिलने के बाद लोगों ने गुफा के बारे में बताया, जो उनके मुताबिक गांव से करीब डेढ़ किमी ऊपर चट्टान पर स्थित है। गाइड बनकर कोई साथ आने को तैयार नहीं है। आखिरकार बुजुर्ग धनराज सिंह ऐतवाल ने दुकान पर बैठे दोरजी लामा से हमारे साथ गुफा तक जाने को कहा। कुछ देर बाद धनराज सिंह भी हमारे साथ आने को तैयार हो गए। 75 साल के धनराज सिंह ने बताया कि, वह पहली बार इस गुफा तक जाएंगे।

गांव से एकदम करीब दिखाई देने वाली इस गुफा वाली चट्टान तक बेहद विकट चढ़ाई और घना जंगल पार करना था। घने कांटेदार झाड़ियों वाले जंगल के बीच हमारे गाइड दोरजी लामा लोहे के धारदार हथियार से झाड़ियों को काटकर चलने लायक जगह बना रहे थे। रास्ता क्या था, झाड़ियां पकड़कर सीधे पहाड़ पर चढ़ना था। धनराज सिंह बता रहे थे कि, जंगल में भालू बहुत हैं। पिछले साल गांव के कई मवेशी भालू ने मार दिए थे। करीब दो घंटे की मशक्कत के बाद गुफा के पास पहुंचे। गुफा तक पहुंचने का अंतिम हिस्सा इतना खतरनाक था कि, हमारे कुछ ही साथी, रस्सी और घास पकड़कर वहां तक पहुंचे।

गुफा के अवलोकन के बाद वापसी की तीखी ढलान भी बेहद मुश्किल थी। धनराज सिंह ने बता रहे थे कि, यह घना जंगल उनके पूर्वजों ने हिमस्खलन से गांव को बचाने के लिए बनाया था। जब से यह जंगल तैयार हुआ, गांव को हिमस्खलन से नुकसान नहीं पहुंचा है।

गाइड दोरजी लामा

हमारे गाइड दोरजी लामा मूलतः तिब्बत के लामा हैं। वे छांगरू में जनजातीय रीति-रिवाजों से पूजा पाठ कराते हैं। उनकी एक बेटी भारत में सेना की टूटू बटालियन में है। उन्होंने अपना तिब्बती के अलावा छांगरू वाला नाम भी बताया। छांगरू के लोग भारत की ब्यास घाटी की तरह सर्दियों में नेपाल के दार्चुला समेत अन्य स्थानों के प्रवास पर जाते हैं। गांव जीत सिंह बोरा ने बताया कि, प्रवास के दौरान वह लोग गांव में चौकीदार रखते हैं। जो पूरे सीजन कई फीट बर्फ से अटे गांव की चौकीदारी करता है। इसके बदले उसे पचास हजार रुपए दिए जाते हैं।

नेपाल के ब्यास गांव पालिका का यह गांव भारत के ब्यास घाटी के गांवों जैसा ही है। दोनों देशों के बीच औपनिवेशिक शासकों ने भले ही काली नदी की सीमा रेखा खींच दी हो। लेकिन दोनों ओर के लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक रिश्ते भी आज तक जस के तस हैं। भारत के रं समुदाय के संगठन रं कल्याण परिषद से छांगरू और तिंकर के लोग भी जुड़े हुए हैं। कुछ साल पहले दोनों ओर के रं समुदाय का एक बड़ा सम्मेलन छांगरू में हो चुका है।

हर घर में भारत की बेटियां

भारत में सीमांत के जनजातीय समाज को रं जबकि, नेपाल वाले छांगरू और तिंकर के निवासियों को ब्यासी कहते हैं। जीत सिंह ने बताया कि, भारत की तरह उनके समुदाय को आरक्षण मिलता है। लेकिन यह इतना कम है कि, समुदाय को खास फायदा नहीं होता। हालांकि, तिब्बत व्यापार के पुराने दौर में अर्जित संपन्नता के कारण यहां के लोग उच्च शिक्षित हैं। गांव के कई लोग अमेरिका, यूरोप और भारत में अच्छी नौकरियों में हैं।

अभी कुछ समय पहले उत्तराखंड के एक यू-ट्यूबर की नेपाल से हुई शादी की जबरदस्त चर्चा सोशल मीडिया पर हुई। भारत के बेरोजगार युवाओं के लिए नेपाल में लड़की की तलाश को लेकर कई मीम्स भी बने। लेकिन छांगरू और तिंकर में इसके उलट हर घर में भारत की बेटियां हैं। साथ ही नेपाल के छांगरू और तिंकर की कई बेटियां भारत के ब्यास, चौदांस और दारमा की बहुएं हैं। गांव के धनराज सिंह का ननिहाल और ससुराल भारत के गुंजी में हैं। इसी तरह जीत सिंह बोहरा की ससुराल भी भारत में है।

छांगरू में फाफर की खेती

छांगरू में इन क्षेत्रों में मौजूद रही पुरानी बौद्ध परंपरा का आज भी खासा असर दिखाई पड़ता है। प्रत्येक घर के आगे सफेद रंग की पताकाएं नजर आती है। दोरजी लामा ने बताया कि, वह गांव के लोगों की पूजापाठ कराते हैं। गांव के एक घर के आगे दो गोल-चिकने पत्थरों पर तिब्बती लिपि में कुछ लिखा गया था। हालांकि, हम इसे पढ़ नहीं पाए। गांव में प्रख्यात पर्वतारोही चन्द्रप्रभा ऐतवाल का भी पुराना घर है।

गांव से कंकालों वाली गुफा को जाने वाले रास्ते पर जनजातीय लोकदेवताओं के चार-पांच मंदिर हैं। धनराज सिंह ने एक मंदिर की ओर इशारा करते हुए बताया कि, यह उनके गांव से बाहर ब्याही गई बेटियों के लिए बनाया है। वह इसी मंदिर में पूजापाठ करती हैं।

शानदार शिल्पकला

शिल्पकला का नमूना शानदार घर

छांगरू में इस समय करीब 120 और तिंकर में 72 घर हैं। दोनों गांवों में करीब 1200 लोग रहते हैं। छांगरू के घरों की भव्यता इनके संपन्न अतीत को बयां करती हैं। मकानों के दरवाजों, खिड़कियों पर बेहतरीन नक्काशी यहां की शानदार शिल्पकला का नमूना है। अतीत में जब तिब्बत के साथ व्यापार में रोक-टोक नहीं थी तो छांगरू और तिंकर उसका प्रमुख केंद्र थे। आज भी तिंकर दर्रे के जरिए जो व्यापार हो रहा है, उसका प्रमुख केंद्र छांगरू और तिंकर ही है। हालांकि, व्यापार में अब वो पुरानी बात नहीं रही। गांव की ज्यादातर महिलाएं व्यापार करने के लिए तिब्बत गई हैं। जबकि, पुरुष यहां से तकलाकोट तक सामान भिजवाने का जिम्मा संभाले हुए हैं।

भोजपत्र की छाल से अनाज की सुरक्षा

अक्तूबर आखिर तक गांव वाले अपने शीतकालीन प्रवास दार्चुला चले जाएंगे। इसलिए इन दिनों खेतों से फाफर की फसल समेटने का काम चल रहा है। गांव में एक जगह जौ जैसे दिखने वाले अनाज की बालियों के गट्ठर रखे हुए हैं। धनराज सिंह ने बताया कि, यह हिमालयी क्षेत्र में उगाए जाने वाला गेहूं है, जिसे वह लोग नपल कहते हैं। इस गेहूं से रोटी के बजाय एक विशेष किस्म का सत्तू ज्यादा बनाया जाता है। गांव के लोग शीतकालीन प्रवास से पहले अपना अनाज गड्ढों में दबाकर जाते हैं। अनाज को कीडे़, सीलन आदि से बचाने के लिए भोजपत्र की छाल का इस्तेमाल किया जाता है। धनराज सिंह ने बताया कि, पहले गड्ढे में भोजपत्र की छाल बिछायी जाती है। उसके बाद उसमें अनाज डाला जाता है। गांव में एक भी घर ऐसा नहीं होगा, जिसके आगे भेड़ों का मांस सुखाने के लिए नहीं टांगा गया हो। सुखाने से पहले मांस को पतले टुकड़ों में काटा जाता है। फिर उसे मालानुमा आकार देकर खिड़कियों और दरवाजों पर टांगकर सुखाया जाता है। इस तरह सुखाया गया मांस यहां चाव के साथ खाया जाता है।

छांगरू गाँव में छज्जे पर सुखाया जा रहा मांस

छांगरू से सीतापुल तक वापसी का रास्ता ढलान वाला है। पार भारत की तरफ काली के किनारे बनी आदि कैलाश और लिपूलेख के लिए बनी सड़क दिखायी देती है। छियालेख और गर्ब्यांग गांव का कुछ हिस्सा भी यहां से नजर आता है। सीतापुल से थोड़ा नीचे तिंकर नदी के बांयी ओर विशाल घास का मैदान है। जिसमें भेड़, बकरियों, घोड़ों, खच्चरों और कुत्तों के साथ चरवाहों के कई झुंड नजर आ रहे थे।

नेपाल की चेकपोस्ट के पास तीन बोर्ड नजर आए जो कल शाम अंधेरे के कारण नहीं देख पाए थे। एक बोर्ड में सीतापुल से वाया नेपाल कैलास मानसरोवर जाने के रास्ते का नक्शा दर्शाया गया था। दूसरे में आपी और नाम्फा हिमालय चोटियों के आरोहण और वहां पथारोहण के लिए जाने वालों के लिए शुल्क का विवरण था। तीसरे बोर्ड में कीड़ाजड़ी लेने वालों के लिए निर्देश दर्ज थे। नेपाल के वन विभाग की ओर से कीड़ा जड़ी लेने जाने वालों से कहा गया था कि, वे वन क्षेत्र में हरे पेड़ न काटें और वहां प्लास्टिकजन्य उत्पादों का उपयोग नहीं करें। गांववालों ने बताया कि, नेपाल में कीड़ाजड़ी का दोहन वैध है। इसके उलट भारत में कुछ वन पंचायतों को छोड़कर कीड़ा जड़ी का दोहन अवैध है। लेकिन यह सिर्फ कागजों में है। हर साल हजारों-हजार लोग जड़ी लेने उच्च हिमालयी क्षेत्र में जाते हैं। वे वहां पारिस्थितिकी को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं, यह देखने वाला कोई नहीं है।

पत्थर पर तिब्बती लिपि पर लिखी गई इबारत

लौटते समय एसएसबी के जवानों का व्यवहार बदला हुआ था। उन्होंने न कोई पूछताछ की न चेकिंग। चाय पीकर जाने का अनुरोध किया। अंततः एसएसबी वालों से विदा लेकर आज के पड़ाव नपलच्यू के लिए चल दिए।

पूरन बिष्ट
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One Comment on “नेपाल के अंतिम गांव में एक दिन”

  1. क्या खूब आनंद दायक यात्रा वर्णन!

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